
कभी ट्रेक मेंटेनेंस तो कभी नॉन इंटरलॉकिंग के नाम पर मेमू एवं पैसेंजर ट्रेनों को किया जा रहा रद्द
जांजगीर-चांपा (संवाद साधना)। भारतीय रेल आम लोगों के लिए सस्ता व सुलभ साधन है। इसलिए इसे लाइफ लाइन के नाम से जाना जाता है। रेलवे की लाइफ लाइन जीवन रेखा के तौर पर देखा जाता है, लेकिन पिछले सालभर से यात्री गाड़ियों खास कर मेमू एवं पैसेंजर ट्रेनों को बड़ी संख्या में नॉन इंटरलॉकिंग, ट्रेक मेंटेनेंस, रिपेयरिंग के नाम पर कैंसिल किया जा रहा है। इससे यात्रियों की परेशानी बढ़ गई है। रेलवे द्वारा यात्री गाड़ियों को कैंसिल कर उसी ट्रेक पर मालगाड़ियों को धड़ल्ले से चलाना लोगों के समझ से परे है।
भारतीय रेल का नाम जेहन में आते ही सबसे पहले इसकी सस्ती, सर्वसुलभता तथा आम लोगों के जीवन में इसके रचे बसे होने का भाव मन में आ जाता है। स्वाभाविक तौर पर सरकारी होने के नाते आवागमन का सस्ता माध्यम होने के साथ साथ गरीब एवम मध्यम वर्गीय लोग अपने जीविकोपार्जन हेतु समय से आना जाना भी कर लिया करते थे, किंतु अब वैसी कोई बात नही है। हालांकि नरसिम्हा राव के समय से ही देश में उदारी एवं निजीकरण के दौर के प्रारंभ होने के साथ ही सार्वजनिक उपकरणों के पराभाव होने के क्रम में रेलवे को भी धीरे धीरे निजी हाथों में सौंपे जाने की प्रक्रिया प्रारंभ हो चुकी थी,किंतु फिर भी रेलवे कमोबेश आम जनता की पहुंच में बनी हुई थी। फिर आया 2014 में भारतीय जनता पार्टी का शासन। शुरुवाती वर्षों में तो सब कुछ पूर्ववत चलता रहा, किंत 2019 के आम चुनावों में जैसे ही पार्टी को अकेले ही पर्याप्त सीटों का बूस्टर मिला प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में सरकारी उपक्रमों को निजी हाथों में देने की प्रक्रिया तेज होती गई। हालांकि रेलवे अभी भी संपूर्ण रूप से निजी हाथों में नही गई थी और आगे भी घोषित रूप से तो नहीं जाने की ही संभावना दिखती है, किंतु सरकार की रीति नीति तथा कार्यकलाप यही संकेत दे रहे हैं कि आहिस्ता आहिस्ता रेलवे भी पूर्ण रूप से प्राइवेट सेक्टर में चली जाएगी। संकेतों में फौरी तौर पर सारे भारत के पैमाने पर यात्री किरायों में भारी बृद्धि, वरिष्ठ नागरिकों को दी जाने वाली सुविधाओं को बंद कर देना (हालांकि आगामी लोक सभा के चुनाओं के मद्देनजर इसे फिर से बहाल किया जा सकता है) एवं भारी संख्या में ट्रेनों के स्टॉपेज समाप्त कर देने आदि तथा विभिन्न जोनलो में खासकर द पू म रेलवे में तो प्रत्यक्ष तथा अभूतपूर्व तौर पर यह साफ दिखाई देता है। इस जोनल के संकेतों में कोरोना काल के पहले से ही यात्री गाड़ियों खास कर मेमू एवं पैसेंजर ट्रेनों को भारी संख्या में नॉन इंटरलॉकिंग, ट्रेक मेंटेनेंस, रिपेयरिंग, इलेक्ट्रिफिकेशन, रिमॉडलिंग आदि के नाम पर कैंसिल करना, यात्री गाड़ियों को तो कैंसिल करना तथा उसी ट्रेक पर कोयला गाड़ियों को धड़ल्ले से चलाना तथा यात्री गाड़ियों को कई कई घंटों तक लेट रखना आदि कार्यों को स्पष्ट तौर पर रेलवे को निजी हाथों में सौंपने की तैयारियों के तौर पर ही देखा जा रहा है। इससे यात्रियों को होने वाली परेशानियों से मानो रेलवे को कोई मतलब ही नहीं। रेल्वे की ऐसी दुरावस्था इतिहास में कभी नहीं देखी गई। भारतीय रेलवे को पहले लाइफ लाइन यानी जीवन रेखा के तौर पर देखा जाता था ,जिसकी प्राथमिकताओं में पहले जनता होती थी बाकी चीजें बाद में। अब स्थितियां बदल गई हैं: पहले पूंजीपतियों के हित तथा जनता बाद में। ये सारी वास्तविकताएं रेलवे को निजी हाथों में सौंपने की ही ओर इशारा करती हैं। देश की जनता की संपत्तियों का निजीकरण किस तरह से गरीब विरोधी होता है इसे शिक्षा एवं स्वास्थ्य को व्यापक तौर पर प्राइवेट सेक्टर को सौंप देने तथा उसके परिणाम स्वरूप आम जनता को उसकी पहुंच से वंचित कर देने को प्रत्यक्ष तौर पर देखा जा सकता है। आज बड़े बड़े शिक्षा संस्थानों तथा अस्पतालों के लाभ जनता का कौन सा वर्ग सबसे ज्यादा प्राप्त कर रहा है और कौन सा वर्ग बिलकुल नहीं, सब जानते हैं। रेलवे एक ओर आधुनिकीकरण की ओर अग्रसर है। तेजस और वंदेभारत जैसे हाईस्पीड ट्रेनों को चला रहा है, लेकिन आम लोगों के लिए एक स्टेशन से दूसरे स्टेशन जाने के लिए पैसेंजर व मेमू ट्रेनों को लगातार रद्द किया जा रहा है। ऐसे में लोग रेलवे की व्यवस्था पर सवालिया निशान लगा रहे है।