शक्ति, नगर की प्रतिष्ठित फर्म बनवारीलाल प्रेमचंद सराफ के द्वारा श्रीमद भागवत कथा महोत्सव के छठवें दिवस पर आज श्रद्धालुओं से भरे पांडाल में कथाव्यास पूज्या दीदी माँ साध्वी ऋतम्भरा जी ने भागवत प्रसंग की विविध लीलाओं को भावपूर्ण रूप में प्रस्तुत किया। कान्हा के गोकुल गमन, कंस वध, गोपी उद्धव संवाद के भावपूर्ण वर्णन के साथ ही रुक्मणि विवाह प्रसंग की शुरुआत करते हुए उन्होंने कहा कि “मेरे ठाकुरजी जब मात्र ग्यारह वर्ष के थे तब उन्होंने कंस का वध किया था। सत्रह बार उन्होंने जरासंध से लोहा लिया। तो ऐसे मेरे ठाकुरजी का अब ब्याह भी होना चाहिए ना ? भीष्मक जी के पुत्री थीं रुक्मणि, जिन्होंने भगवान् को अपना ह्रदय दे दिया था। उनके भाई चाहते थे कि बहन रुक्मणि का विवाह शिशुपाल से हो जाए। अब आप देखो कि कर्ण कटु और कर्कश वाणी बोलने वाला शिशुपाल उसके बगल में बैठी सर्वांग सुंदरी और सर्वगुण सम्पन्न रुक्मणि भला कैसी दिखेगी ! उस नगरी के सारे लोग “हाय हाय” कर रहे थे कि ये क्या अनर्थ होने वाला है। अपने भाई के इस निर्णय के विरुद्ध रुक्मणि ने अनशन कर दिया और भगवान को प्रेमपत्र भेजा। जब कान्हा का रथ तैयार हुआ तो दाऊ जी ने पूछा कि “क्यों कान्हा! कहाँ जा रहे हो ?* कान्हा मुस्कुराकर बोले “दाऊ! कुंदनपुर से निमंत्रण आया है।” दाऊ ने हँसकर कहा “अच्छा तो अब हमारे कान्हा का विवाह तो होना ही है। आप चलिए, हम भी पीछे-पीछे अपनी चतुरंगिणी सेना लेकर आते हैं। ” इधर जब ब्राम्हण ने जाकर कहा कि “रुक्मिणी जी, अब तो आप साक्षात् लक्ष्मी हैं क्योंकि द्वारकाधीश स्वयं आ गए हैं। ” तब सैट सहस्त्र दीप जलाकर रुक्मिणी भवानी माता के मंदिर गईं थीं. जैसे ही उन्होंने माँ के चरणों में आराधना की, तैसे ही माँ के गले में पड़ी वो पुष्पमाला उतरकर रुक्मिणी जी के गले में आ गई। मानों उन्हें मनवांछित वर का आशीर्वाद मिल गया हो। सारे भूमण्डल के नरेश खड़े हैं रुक्मिणी को देखने के लिए। जैसे ही वो मंदिर से बाहर निकली तो भगवान का गरुड़ध्वजी रथ आकर रुका। प्रभु ने रथ पर खड़े होकर शंख को घोष किया और घोषणा कि “सुनो सारे भूमण्डल के नरेशों! मैं रुक्मिणी को अपनी भार्या बनाकर ले जा रहा हूँ।” रुक्मिणी ने दौड़कर भगवान् के चरण छूना चाहे तो भगवान् ने अजानबाहु बनकर रुक्मिणी को अपने आलिंगन में भरकर रथारूढ़ कर लिया। चारों और जय जयकार का घोष होने लगा। दीदी माँ जी के भजन “लूटकर ले गया दिल जिगर, सावँरा जादूगर” के साथ झूमते नाचते हजारों श्रद्धालुओं के बीच जब श्रीकृष्ण और रुक्मिणी की बारात पंडाल से गुजरकर विवाह मंडप में पहुँची तब उसकी आभा देखते ही बनती थी। बाद में महारास का भव्य आयोजन भी हुआ।